Tuesday 19 September 2017

हिमालय दिवस के असर पर 9 सितंबर को दैनिक जागरण में प्रकाशित मेरा आलेख

हिमालय मात्र एक भौगोलिक संरचना नहीं बल्कि यह भारत का ढाल है। यह हमारी संस्कृति और सभ्यता का उद्गम स्थल है हिमालय देश दुनिया की संस्कृतिदर्शनऔर जीवन यापन को प्रत्यक्ष तौर पर प्रभावित करने वाला सबसे महत्वपूर्ण कारक है। 2500 किमी लम्बा और करीब 300 किमी चौड़ाई में फैला हिमालय हमारे लिए कई मायने रखता है। इतिहास से लेकर भूगोलविज्ञानजीवन यापन और पारिस्थितिकी तंत्र सबकुछ हिमालय के इर्द गिर्द ही घूमते हैं। देश का 65 प्रतिशत पानी हिमालयी नदियों की ही देन है जिसमें गंगा,यमुना और ब्रह्मपुत्र प्रमुख हैं। सच तो यह है कि हिमालय देश की प्यास बुझाने  से लेकर खेतीबाड़ी के पानी का भी स्रोत है। लगभग देश का 65 फीसदी पानी हिमालय की देन है।

देश के 12 राज्यों का लाख वर्ग किमी क्षेत्र हिमालय के क्षेत्र में आता है। इसी हिमालय से देश की 11 मुख्य नदियां व सैकड़ों छोटी सहायक नदियांनिकलती हैं और ये नदियां देश की जीवन रेखा हैं। हिमालय न सिर्फ कृषि के लिए जलवायु को उपयुक्त बनाता हैबल्कि इसकी जलवायु मिट्टी को भीउपजाऊ बनाती हैइस तरह हरित क्रांति में भी हिमालय का खास योगदान रहा है।देश की अमूल्य वन संपदा हिमालय में बसती है। देश के कुल वनाच्छादित क्षेत्र में से 67 फीसदी भूभाग हिमालय में है। यहीं से हमें  अविरल जल और हवा मिलती है।। फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक उत्तराखंड का 47 फीसदी से ज्यादा हिस्सा वनों से ढका हुआ है। उत्तराखंड उत्तर भारत का इकलौता राज्य है जहां 71 फीसदी से ज्यादा फॉरेस्ट कवर है।

यह ही नहीं सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि हिमालय सदियों से बाहरी ताकतों से हमारी रक्षा करता आ रहा है। इसलिए इसे देश का रक्षक भी कहा जाता है।
हिमालय दिवस पर सतत पर्वतीय विकास सम्मेलन को संबोधित करते हुए
मगर दूसरी तरफ  जैसे जैसे हम विकास की दौड़ में आगे बढ़ेहमसे हिमालय की अनदेखी शुरू हुई। देश के आर्थिक और सामाजिक उत्थान में हिमालय के उपकारों को हम नजरअंदाज करते गए। सदियों से हमारा पालन पोषण करने वाले हिमालय पर हमारे ही कारण संकट मंडराना शुरू हुआ।
पिछले दो दशको से होने वाली तमाम घटनाये इसी ओर संकेत कर रही है। आज पारिस्थितिकी हमें  ये सोचने को मजबूर कर चुकी है कि हम सबको मिलकर हिमालय के  संरक्षण के बारे में गंभीरता से प्रयास करने होंगे। इसी भावना ने हिमालय दिवस जैसे मुददे  को  जन्म दिया।

इसमें कोई शंका नहीं कि हिमालय क्षेत्र में मानव हस्तक्षेप से पर्यावरणीय संतुलन गड़बड़ाया है।  इसके कारण ना सिर्फ हिमालयी ग्लेशियर बड़ी तेजी से पिघलें हैंबल्कि यहां की अनेक वनस्पतियों तथा वन्य जीवों की प्रजातियां भी विलुप्त होती जा रही हैं। संसदीय पैनल की एक रिपोर्ट के मुताबिक हिमालयी क्षेत्र के 968 ग्लेशियरों पर ग्लोबल वर्मिंग का साफ तौर पर प्रतिकूल असर हुआ है। वाडिया हिमालयन इंस्टिट्यूट देहरादून  ने अपने अध्ययन में इसी और इशारा किया है। अकेले उत्तराखंड में १४ ग्लेशियर पर संकट पड़ चूका हैं। इनमे ग्लोबल वार्मिंग व् जलवायु परिवर्तन का सीधा असर दिखाई देता हैं । साफ़ सी बात है नदियों का अस्तित्व इन हिमखंडो से जुड़ा हैं । और इनके बिगड़ते हालातों का सीधा मतलब देश दुनिया के जनजीवन पर पड़ना तय हैं।

हमें यह भी स्वीकारना होगा की यहाँ के वनों पर किसी न किसी रूप में लगातार खतरे आये  ही है। हर वर्ष लगने वाली आग सैकड़ो हेक्टेयर वनों को लील लेती हैं । हाल में यह एक बड़ी चिंता के रूप में उभरा हैं । वनाग्नि वनों के अलावा वन्यजीवों के संरक्षण पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं । हमने वनों के अलावा वन्य जीव व प्रजातियों को भी गत दशको में खोया हैं। हिमालय एक नए संकट के बीच में ही घिरता जा रहा हैं । जिसकी ताल केदारनाथ त्रासदी के साथ ठुकी । हर वर्ष अब हिमालय को बाढ़ भूस्खलन के कारण बड़े रूप में जान माल का नुक्सान भी झेलना पड़ रहा हैं। और इन सबका असर हिमालय की खेतीबाड़ी पर पड़ा हैं । आज हिमालय के गाँवों  की सीधी निर्भरता खेती से ही जुडी हैं । उत्तराखंड में अकेले खेती भूमि का दायरा घटकर 7 करीब 7 लाख हेक्टेयर रह गया है। इसमें से इसमें 3.10 लाख हेक्टेयर मैदानी और 3.90 लाख हेक्टेयर पर्वतीय है। और इस कृषि भूमि पर 75 फीसदी राज्य की आबादी निर्भर करती हैं । यह बात मात्र उत्तराखंड की ही नहीं बल्कि सभी हिमालयी राज्यों की हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि खेती राज्यों को खाद्य सुरक्षा तो देती हैं और साथ में बड़े रोजगार का कारण भी बनती हैं। हिमालय से जुडा एक और रोजगार जिसे समझने समझाने की कोशिश होनी चाहिए।  वो इसके पारिस्थिकी संरक्षण से जुडा हैं। मसलन वनोंन्नतिजल व् मृदा संरक्षण को रोजगार से जोड़ने होंगे। क्योंकि जहाँ ये एक तरफ हिमालय की आवश्यकता के अनुरूप पारिस्थितिकीय रोजगार बनेगे वही दूसरी और इन उत्पादों से रॉयल्टी के रूप में लोगो को सीधा लाभ प्राप्त होगा। और हिमालय के सतत विकास की परिकल्पना भी साकार होगी।

सब तरह की हिमालयी घटनाएँ एक ही तरफ इशारा करती हैं कि अब सामूहिक जिम्मेदारी का समय है। हिमालय के पूरे राज्य उनकी सरकारें  व सामाजिक आन्दोलन से जुड़े लोगों को एक मंच पर इन चुनोतियों के मंथन के लिए जुड़ने का अवसर हिमालय दिवस देता हैं । और इस प्रयास को केंद्र सरकार के साथ जोड़कर हिमालयी ढांचे की बेहतरी के लिए एकजुट होकर कार्य करने का संयोग भी प्रदान करता है । हम आज तक हिमालय के प्रति पूरी तरह से गंभीर नहीं हो पाए हैं और यही कारण हैं कि हिमालय जहाँ पारिस्थिकीय रूप में डगमगा रहा हैं  वहां ही इसके जनजीवन पर सीधा प्रतिकूल असर पड़ रहा हैं । हिमालय के खाली होते सीमान्त गाँव चाहे उत्तराखंड हो या हिमाचल प्रदेश या अरुणाचल प्रदेश या जम्मू कश्मीर। एक असुरक्षा की भावना को स्थान दे रहा हैं । सीमान्त क्षेत्रो की बसावट मात्र एक रक्षा के ही रूप में नहीं देखी जा सकती बल्कि देश की संस्कृतिलोकाचार और साहित्य का भी हिस्सा होती है।

हिमालय की अपारता को समझना ही हिमालय दिवस का सन्देश हैं और यह सन्देश मात्र हिमालय के लोगो के लिए ही नहीं बल्कि उन सभी देशों व राज्यों का है जो इसके उपकारों का अभी तक ऋण नहीं चुका पाए है ।
हिमालय के महत्व को समझते हुए उत्तराखंड के लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी ने भी अपने गीत में हिमालय के चिरंजीवी होने की कामना की है।

परबतूं कि शान छै, मान अभिमान छै
सैरा मुलुकौ ताज छै तू...
हिमालय जुगराज रै तू
पंडित ज्ञानि कु ज्ञान, ऋषि मुनि को छई ध्यान
त्वे मा ही रच्या बस्यान हमरा वेद अर पुराण
देवतौं कू वास छै तू...
हिमालय जुगराज रै तू...

इसलिए हिमालय ही वो जगह है जहाँ से संकल्प भी लिया जा सकता है और सिद्धी भी प्राप्त की जा सकती हैं ।


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